18 Sept 2015

वह दौर कुछ और था,
नाम रमता था अपना, अक़्लमंदों की क़तारों में   …
अब वो दौर है, कुछ के रहमो-करम पर ,
गिने जाते हैं फ़क़ीरों में   …

बात दौर की नहीं ,
कुछ है अरमानों की, कुछ तदबीरों की ,
जिनसे उभर न सकेंगे कई अरसों ,
सौग़ात ये है उन तकदीरों की   …

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