कब मिलेगी इन सुर्ख पत्तों को ,
शाखों से , झड़ने की वजह ...
कब मिलेगा इन उड़ते पंछियों से ,
उन्मुक्त आसमान में , उड़ने का सबब ...
कब मिलेगी अल्फाजों से ,
एक शिद्दत भरी दास्ताँ ...
कब होगी महकमों को ,
खुल कर, सांस लेने की तलब ...
कब खुलेंगी बाहें ज़िन्दगी की ,
अपने आघोष में समाने के लिए ...
कब होगा हर कतरा लहू का ,
लिखने को मोहताज ...
कब होगा शिकस्त का ,
पर्दा फाश ...
इसी कश-म-कश में रेंगती हुयी ,
मेरी सोच की रफ़्तार ...
है कहने को रफ़्तार ,
पर है मद्दह्म बहुत ...
बन बैठा हूँ जैसे ,
एक जीता-जागता बुत ...