ना कोई मुक़ाम रहा पाने को ,
ना कोई मंज़िल दिख रही है ...
बस आफ़ताब की तमन्ना लिए बढ़ रहे हैं ,
कि व्यर्थ ही यह कोशिश लग रही है ...
फिर भी कोशिशों के पुलिंदे बाँध रहे हैं ,
बस आफ़ताब की तमन्ना लिए बढ़ रहे हैं ,
कि व्यर्थ ही यह कोशिश लग रही है ...
फिर भी कोशिशों के पुलिंदे बाँध रहे हैं ,
के कुछ तो आस अब भी बाक़ी है
बवंडरों और तूफानों से तो गुज़र चुके हम ,
ना कोई उनसे अब डर है ना ही उनकी फ़िक्र ,
वो तो बस आपस कि आपस में ही तक़रार है ,
जिन मुसीबतों का हम कर रहे ज़िक्र ...
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