9 Jan 2010

बड़े- बड़े ख़्वाबों को मन में समेटे हुए,
मंज़िल की ओर चल दिए...
थोड़ा थम जाओ, थोड़ा ठहर जाओ,
अभी तो कुछ ही हैं, फासले तय किये|

कल एक नए दिन का नया सवेरा होगा
कहीं न कहीं तो अपना बसेरा होगा...
फिर रास्ता तो हम खोज ही लेंगे,
पहले कुछ ख्वाहिश तो बाँध देंगे |
वक़्त न दिया ज़िन्दगी ने,
कि कुछ थम जाऊं, ठहर जाऊं,
पाबंदियों के इन घेरों से,
कुछ तो आगे बढ़ पाऊँ ||

1 comment:

  1. i think this piece very poignantly reflects how we forget to look at the very purpose of living, becoming a slave to our material needs.
    i think this is the best of yours i have read so far.

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